Published by :- Roshan Soni
Updated on: Monday, 20 Jan 2025
महाकुंभ के किस्से-8: कल्पवास और उसके अद्भुत इतिहास की कहानी
महाकुंभ मेला एक ऐसा अद्वितीय धार्मिक उत्सव है, जो हर 12 साल में चार प्रमुख स्थानों पर आयोजित किया जाता है। लेकिन कुंभ के दौरान कल्पवास का विशेष महत्व है। कल्पवास का अभ्यास प्राचीन समय से किया जा रहा है और यह परंपरा वेदों के अध्ययन, ध्यान, साधना और यज्ञ की विधि पर आधारित है। आइए जानते हैं महाकुंभ के इस महत्वपूर्ण पहलू – कल्पवास – के बारे में।

महाकुंभ के किस्से-8 :- कल्पवास का इतिहास और परंपरा
कल्पवास का जिक्र महाभारत, रामचरित मानस और पुराणों में भी मिलता है। यह परंपरा माघ महीने की पूर्णिमा से लेकर माघ शुक्ल एकादशी तक होती है। इसका महत्व खासतौर पर संगम तट पर स्थित होता है, जहां लोग गंगा, यमुन और सरस्वती नदियों के संगम में स्नान करते हैं। कल्पवास के दौरान साधु-संत वेदों का अध्ययन करते हैं, ध्यान करते हैं और पुण्य प्राप्त करने के लिए यज्ञ, दान आदि करते हैं।
रामचरित मानस के बालकांड में तुलसीदास ने कहा है: “माघ मकर गत रवि जब होई,
तीरथ पतिहि आव सब कोई।
देव दनुज किन्नर नर श्रेणी,
सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी।”
इसका मतलब है कि जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं, तब देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्य सभी संगम में स्नान करते हैं।
1924 प्रयाग कुंभ और जल सत्याग्रह
1924 के प्रयाग कुंभ में एक दिलचस्प घटना घटी थी। अंग्रेज सरकार ने संगम में स्नान पर रोक लगा दी थी, यह कहकर कि वहां फिसलन बढ़ गई है और भीड़ के कारण हादसा हो सकता है। लेकिन कल्पवासियों ने इस निर्णय का विरोध किया और पंडित मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में जल सत्याग्रह किया।
इतिहासकार हेरंब चतुर्वेदी बताते हैं कि कल्पवासी दिन में तीन बार स्नान करते थे, और वे संगम तट पर स्नान करने की जिद पर थे। इस सत्याग्रह में जवाहरलाल नेहरू भी शामिल हुए थे और अंततः कल्पवासियों को संगम में स्नान की अनुमति मिली।
कल्पवास और उसके लाभ
कल्पवास के दौरान एक माह तक तपस्या करने वालों को 432 करोड़ साल के पुण्य की प्राप्ति होती है, यह मान्यता है। शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के अनुसार, ब्रह्मा जी के एक दिन के बराबर 1,000 कल्प होते हैं और अगर कोई कल्पवास करता है, तो उसे 432 करोड़ साल का फल मिलता है।
कल्पवास का अभ्यास करने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है, यदि वह लगातार 12 वर्षों तक कल्पवास करता है। शास्त्रों के अनुसार कल्पवास के दौरान खिचड़ी खाना संसारिकता से मुक्ति का प्रतीक माना जाता है, जबकि कढ़ी खाना घर लौटते समय पुनः सांसारिक जीवन की ओर लौटने का संकेत होता है।
कल्पवास की विधि
कल्पवास की शुरुआत पौष पूर्णिमा से होती है और यह माघ पूर्णिमा तक चलता है। इसमें सबसे पहले कल्पवासी प्रयाग में आते हैं और संगम में डुबकी लगाते हैं। इसके बाद वे साधना करने के लिए अपने शिविरों में लौट जाते हैं, जहां वे ध्यान, यज्ञ और पूजा करते हैं।

कल्पवास के दौरान दान और तपस्या का विशेष महत्व है। शास्त्रों में कहा गया है कि कल्पवास करने से व्यक्ति को अत्यधिक पुण्य और आध्यात्मिक उन्नति मिलती है।
राजा हर्षवर्धन और कल्पवास
6वीं शताब्दी में राजा हर्षवर्धन ने कल्पवास के दौरान अपना राजपाट छोड़ दिया था और सारी संपत्ति को दान कर दिया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने राजा हर्षवर्धन के इस दान की चर्चा की है। उन्होंने लिखा कि हर्षवर्धन ने 74 दिनों तक लगातार दान किया, और अंत में अपना मुकुट भी दान कर दिया।
कल्पवासियों के लिए खिचड़ी और कढ़ी का महत्व
कल्पवास के दौरान, कल्पवासी खिचड़ी खाते हैं और इसे संसारिकता से मुक्ति का प्रतीक मानते हैं। खिचड़ी के बाद, जब वे घर लौटते हैं, तो वे कढ़ी खाते हैं, जिसे फिर से सांसारिक जीवन में प्रवेश करने का संकेत माना जाता है।
Frequently Asked Questions (FAQ) in Hindi
- कल्पवास का क्या मतलब है?
- कल्पवास का मतलब है एक विशेष समयावधि (पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक) तक संगम तट पर रहकर तपस्या, साधना और वेदों का अध्ययन करना।
- कल्पवास के दौरान क्या किया जाता है?
- कल्पवासियों के लिए मुख्य रूप से ध्यान, यज्ञ, वेदों का अध्ययन और दान करना महत्वपूर्ण होता है।
- कल्पवास करने से कौन-कौन से लाभ मिलते हैं?
- कल्पवास करने से व्यक्ति को 432 करोड़ साल का पुण्य प्राप्त होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
- राजा हर्षवर्धन ने कल्पवास के दौरान क्या किया था?
- राजा हर्षवर्धन ने कल्पवास के दौरान अपना पूरा राजपाट छोड़ दिया और 74 दिनों तक दान करते रहे, अंत में उन्होंने अपना मुकुट भी दान कर दिया।
- कल्पवास में खिचड़ी और कढ़ी क्यों खाई जाती है?
- खिचड़ी खाना संसारिकता से मुक्ति का प्रतीक माना जाता है, जबकि कढ़ी खाना फिर से सांसारिक जीवन की ओर लौटने का संकेत होता है।
निष्कर्ष:
महाकुंभ के किस्से-8 में कल्पवास की परंपरा का इतिहास और महत्व स्पष्ट रूप से बताया गया है। यह सिर्फ एक धार्मिक अभ्यास नहीं है, बल्कि आत्मिक उन्नति, पुण्य और मोक्ष की प्राप्ति का माध्यम भी है। कल्पवास के दौरान व्यक्ति की तपस्या और साधना उसे एक उच्च स्तर की आस्था और भक्ति की ओर ले जाती है।
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